हज़ारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पे रोती है ..बड़ी मुश्किल से होते है चमन में दीदावर पैदा “
9 जुलाई 1938 को मूसलाधार बरसे मेह के बीच गुजरात की वस्त्र राजधानी और तब के ब्रिटिश प्रेसीडेंसी के अंतर्गत आने वाले शहर सूरत के एक व्यवसायी जेठालाल जरीवाला व उनकी पत्नी जवेरबेन के एक बच्चे का जन्म हुआ जिसका नाम हरिहर जेठालाल जरीवाला रखा गया ।
वैसे इनका नाम हरिहर जरीवाला था पर प्यार से वे हरीभाई कहलाते थे तब कौन जानता था कि बच्चा जब संजीव कुमार बन कर हिंदी सिनेमा के आकाश पर उभरेगा तो सारे सितारे फिर फीके ही रह जाएँगे उनके सामने और उनका क़द ध्रुवतारे सा हो जाएगा .. जिसे देख कर आने वाला हर अभिनेता अपना रास्ता खोजेगा ।
संजीव कुमार महज़ अभिनेता नहीं बल्कि अभिनय का संस्थान थे .. और शायद ही कभी कहीं संजीव के अभिनय पर कोई नकारात्मक टिप्पणी हुई हो ।
यों संजीव का परिवार फ़िल्मों से अछूता नहीं था । भाई किशोर जरीवाला म्यूज़िक डायरेक्टर थे तो नकुल प्रॉड्यूसर थे । बहन लीला ने भी बतौर अभिनेत्री काम किया मगर यश जो हरीभाई के लिखा था वो कमाल था । तभी तो सिनेमा में आने पर सावन कुमार टॉक ने उन्हें नया नाम दिया संजीव कुमार !
उनके ‘नयादिन नयीरात ‘ फ़िल्म में नौ रोल और ‘कोशिश ‘फ़िल्म में गूँगे बहरे की भूमिका ने उन्हें अपने समकालीन अभिनेताओं से कहीं बहुत आगे खड़ा कर दिया था ।
वह एक व्यक्ति नहीं रह कर अभिनय का आयाम हो चुके थे । हालाँकि बाद में नाना पाटेकर ने भी एक फ़िल्म में गूँगे बहरे की भूमिका अदा की मगर संजीव कुमार का मक़ाम अलहायदा ही रहा ।आप प्रयोग के लिये ही सही ..सिप्पीज की ‘शोले ‘ में से ठाकुर के किरदार को हटा दें मेरा दावा है कि वो पूरी फ़िल्म अधूरी सी रह जाएगी ।
उन्हें श्रेष्ठ अभिनेता के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार के अलावा फ़िल्मफ़ेयर क सर्वश्रेष्ठ अभिनेता व सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता पुरस्कार भी मिले … मगर वे स्वयं पुरस्कारों से परे थे । शायद पुरस्कार उन्हें मिलकर स्वयं सम्मानित ही हुए ।
संजीव अविवाहित रहे और मात्र 47 वर्ष की आयु में सन् 1985 में 6 नवम्बर को हृदय गति रुक जाने से मुम्बई में उनकी मृत्यु हो गयी। पच्चीस साल तक वे लगातार फ़िल्मों में सक्रिय रहे परंतु प्यार उन्हें एक ही बार हुआ और वो भी हेमामालिनी से ।संजीव कहते है कि जब हेमा जी की माँ ने इस रिश्ते को नामंज़ूर कर दिया तो उन्हें बहुत तेज भूख लगी और वे मुंबई पुणे हाइवे पर एक ढाबे की ओर खाना खाने रवाना हो गए ।
शुरूआती दौर में पहले वे रंगमंच से जुड़े रहे मगर बाद में उन्होंने बाक़ायदा फ़िल्मालय के एक्टिंग स्कूल में दाखिला लिया। 1960 में उन्हें फ़िल्मालय बैनर की ही फ़िल्म’ हम हिन्दुस्तानी ‘में एक छोटी सी भूमिका निभाने का मौका मिला और उनका फ़िल्मी सफ़र शुरु हो गया ।
पुत्र के दस वर्ष का होते ही हो जाती थी पिता की मौत
कहते हैं कि इनके परिवार को अभिशाप मिला हुआ था। परिवार में बड़े पुत्र के 10 वर्ष का होने पर पिता की मृत्यु हो जाती थी। इनके दादा, पिता और भाई सभी के साथ यह हो चुका था और यह अभिशाप तारी रहा …….संजीव कुमार ने अपने दिवंगत भाई के बेटे को गोद लिया और उसके ठीक दस वर्ष का होने पर महज़ 47 वर्ष की उम्र संजीव कुमार ने यह नश्वर देह त्याग दी ।
शायद यही कारण रहा होगा कि वे विवाह के प्रति उदासीन ही रहे। संजीव कुमार ने कभी भी छोटी भूमिकाओं से कोई परहेज नहीं किया। ‘संघर्ष ‘ फ़िल्म में दिलीप साहब की बाँहों में दम तोड़ने का दृश्य इतना शानदार तरीक़े से निभाया कि स्वयं दिलीप साहब भी हैरान रह गये।
स्टार कलाकार हो जाने के बावजूद भी उन्होंने कभी नखरे नहीं किये। जहां उन्होंने अपनी सहयोगी जया बच्चन के स्वसुर, प्रेमी, पिता और पति की भूमिकाएँ भी निभायीं। वहीं त्रिशूल में अपने समकालीन अमिताभ के पिता की भूमिका भी बेझिझक की ।
इन्हें सफलता मिली थी वर्ष 1968 में धर्मेन्द्र अभिनीत फ़िल्म ‘शिकार’ से । इस फ़िल्म में वे पुलिस ऑफिसर की भूमिका में थे ।यह फ़िल्म पूरी तरह धर्मेन्द्र की थी मगर संजीव कुमार अपने अभिनय की छाप छोड़ने में कामयाब रहे और इस अभिनय के लिये उन्हें सहायक अभिनेता का फ़िल्मफेयर अवार्ड भी मिला।
सन 1970 में प्रदर्शित फ़िल्म ‘खिलौना ‘की ज़ोरदार कामयाबी के बाद संजीव कुमार ने बतौर अभिनेता अपनी अलग ही पहचान बना ली। उसी साल आई फ़िल्म ‘दस्तक ‘ में उनके लाजवाब अभिनय के लिये सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वर्ष 1972 में प्रदर्शित फ़िल्म ‘कोशिश ‘में उनके अभिनय का नया आयाम दर्शकों को देखने को मिला।
क़रीब 145 फ़िल्मों में काम कर चुके संजीव कुमार ने सत्तर के दशक के बाद फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा । सूरत शहर में उनके नाम पर एक मार्ग ‘ संजीव कुमार रोड’ है जिसका उद्घाटन सुनीलदत ने किया था।
गुलज़ार और संजीव कुमार *
“संजीवकुमार – द एक्टर वी ऑल लव्ड “ नामक किताब जिसके लेखक रीता राममूर्ति गुप्ता ,संजीव कुमार के भतीजे उदय जरीवाला व हनीफ़ जरीवाला है ,के विमोचन के अवसर पर अनिलकपूर कहते हैं कि ‘गुलज़ार और संजीव कुमार की जोड़ी हालीवुड के दिग्गज मार्टिन स्कार्सेस और राबर्ट डी नीरो की प्रतिष्ठित जोड़ी जैसी थी‚ और सचमुच इस जोड़ी ने हिंदी सिनेमा के फलक पर नए रंग उकेरे । .. कुछ कत्थई -भूरे .. तो कुछ आबनूसी .. तो कुछ गहरे सफ़ेद जिनमें कहीं कहीं कुमकुम के छींटे डाले गए थे स्वस्तिक की जगह ।
गुलज़ार और संजीव की फ़िल्में ऐसी है मानों घर के बगीचे में उगे डहलिये के फूल या फिर किसी उजाड़ शिवमंदिर बजाए गए घंटे की पहाड़ों से टकरा कर गूंजती ध्वनि ।
सदैव सफ़ेद कुर्ता पाजामा पहनने वाले सम्पूर्ण सिंह कालरा का गुलज़ार हो जाना और हरीभाई जरीवाला का संजीव कुमार हो जाना मानो एक ही श्रेणी का कायांतरण था ।
गुलज़ार कहते हैं कि मेरे दो ध्रुव थे एक हरीभाई और दूसरे पंचम दा । साठ के दशक को वे याद करते है जब गुलज़ार इंडियन नेशनल थिएटर के लिये प्ले लिखते थे और संजीव उनमें अभिनय करते थे ।
जब कमलेश्वर की ‘काली आँधी ‘ उपन्यास पर गुलज़ार आँधी फ़िल्म बना रहे थे तब उनके आपसी विचार विमर्श के सत्र बड़े गहन होते थे ।
संजीव और गुलजार की जोड़ी ने ‘मौसम’, ‘आंधी’, ‘अंगूर’, ‘कोशिश’ ‘नमकीन’और ‘परिचय’ जैसी बेहतरीन फिल्में भारतीय दर्शकों को दी ।
‘मौसम ‘में अपनी बेटी को ढूँढता बाप हो चाहे ‘आँधी ‘में राजनेत्री पत्नी से सामंजस्य बिठाता पति हो .. संजीव कुमार की बेहतरीन अदाकारी चमकती मणि सी पर्दे पर दिखाई देती है ।
गुलज़ार की फ़िल्मों में गीतों का अपना एक मक़ाम रहता है । गीतकार के रूप में गुलज़ार की अक्सर काव्य व्यंजनाएँ देखने को मिलती है .. ‘कुछ सुस्त कदम रस्ते , कुछ तेज कदम राहें ‘…..संगीत में वे म्यूज़िक डायरेक्टर को शायद सेक्सॉफोन के इस्तेमाल की हिदायत ज़रूर देते थे तभी तो आप ज़रा कान लगा कर सुने कि ‘ जाड़ों की नर्म धूप और आँगन में लेटकर .. वादी में गूंजती हुई खामोशियाँ सुनें .. ‘और एक वादियों की गूंज की लहक सी इस वाद्य यंत्र की आपके कानों में समा जाती है ।
(मैं हाल ही के दिनों में कुमाऊँ में था तो सोमेश्वर घाटी को देख कर मुझे गुलज़ार के सिनेमा की याद आ गई । निश्चित ही मैं २०२३ में होली के बाद एक डेढ़ माह रहूँगा ताकि कुछ बेहतर लिख सकूँ )
शेक्सपीयर के ‘ कॉमेडी ऑफ एरर ‘ पर आधारित ‘अंगूर’ संजीवकुमार की अद्भुत हास्यपूर्ण फ़िल्म जिसमें देवेन उनके साथ है ।
गुलज़ार याद करते हुए एक वाक़या उनकी किताब का बताते हैं कि 1961 में बन रही फ़िल्म ‘आरती’ में संजीव को मीना कुमारी के अगेंस्ट कास्ट किया गया था .. तब वे 23 बरस के मात्र थे । कुछ दिन बाद पता लगा कि उन्हें हटाकर उन दिनों के स्टार प्रदीप कुमार को ले लिया गया तो संजीव कुमार को इतना डिप्रेशन हुआ कि यह उन्हें महीने भर अस्पताल में रहना पड़ा ।यही सिनेमा की दीवानगी उन्हें सबसे ऊपर रखती रही ।
बहरहाल..संजीव कुमार जैसे कलाकार कभी मरते नहीं है …. वे इस पृथ्वी से जब भी गुजरते हैं तो धूमकेतु की तरह देर तक आसमान में चमकते रहते हैं ।
लेखसाभार- फेसबुक पाठक