मनोज कुमार समाचार संपादक

आमतौर पर किसी की मौत हो जाने पर आस-पड़ोस के घरों में चूल्हे नहीं जलते हैं। लेकिन जौनपुर की रहने वाली महरिता और सरिता के घरों का चूल्हा लोगों के मरने पर ही जलता है। क्योंकि ये दोनों महिलाएं शमशान घाट पर लाशों को जलाकर अपने बच्चों का पेट भरने को मजबूर है।
आमतौर पर हिन्दू धर्म में शमशान घाट पर महिलाएं नही जाती है। लेकिन जौनपुर में गंगा- गोमती के तट पर स्थित खुटहन के पिलकिछा घाट पर पिछले 7 साल से दो गरीब विधवा महिलाएं मजबूरी में मरघट पर आने वाली लाशों का अंतिम संस्कार कर अपने बाल बच्चों का पेट पाल रही है। यह काम ही इन महिलाओं के जीवन का सहारा बन रहा है।
महिलाओ की आपबीती
करीब 7 साल पहले महरीता नाम की महिला के पति का निधन हो गया तो घर में आर्थिक दिक्कतें शुरू हो गईं। कुछ काम धंधा नही सूझा तो महरीता ने चिता जलाने का काम शुरू कर दिया। उसके श्मशान में पहुंचते ही पुरुष समाज के ठेकेदारो ने धर्म का हवाला देते हुए उसे ये काम करने से मना कर दिया, लेकिन महरीता ने अपने बच्चों की भूख का हवाला देते हुए काम छोड़ने से मना कर दिया।
महिलाओं ने बताया कि श्मशान घाट पर शवों का अंतिम संस्कार करने के काम में शुरुआत में दिक्कत आई। लेकिन पेट की भूख से बड़ी दिक्कत शायद ही इस दुनिया मे कोई दूसरी हो। पुरुष समाज ने शुरुआती दिनों में श्मशान घाट में महिलाओं की मौजूदगी का काफी विरोध किया। लेकिन महिलाओं ने उनकी एक न सुनी। महिलाओ ने बताया कि धीरे धीरे अब सब कुछ सामान्य हो गया है। उनके इस कार्य मे भी अब लोग काफी सहयोग करने लगे है।
दे जाते है 50 रुपये से लेकर 500 रुपये तक
वहीं, इस काम में लगी दूसरी महिला सरिता का कहना है कि उनका 8 साल का लड़का है और दो बेटियां हैं। मजबूरी में उन्होंने इस पेशे को चुना, उन्हें अब कोई पछतावा नहीं है। वो इस काम को करके अपने बच्चों का पेट पाल रही हैं। दोनों महिलाओं ने बताया कि एक शव जलाने पर 50 रुपए से लेकर 500 रुपए तक मिल जाते हैं।
ये महिलाएं ही शव को आखिर तक जलाती हैं। इसके एवज में जो 100-200 तो कभी 500 रुपए तक मिल जाते हैं उनसे इनके परिवार का गुज़र-बसर होता है। महिलाओ ने बताया कि दिन भर में दो-तीन शव जला लेते हैं, जिससे घर की गृहस्थी चलाने के लिए घाट पर जलने वाली लाशें अब सहारा बन रही हैं।
